डोम राजवंश के वंशज आज भी बाजा बजा कर निभाते हैं परंपरा

 

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डोम राजवंश के वंशज आज भी बाजा बजा कर निभाते हैं परंपरा

7 वर्ष पहले
जशपुर दशहरा महोत्सव के हर कार्यक्रम में राजपरिवार के सदस्यों का जितना महत्व रहता है, उतना ही महत्व बैगाओं, मिरधाओं और पारंपरिक नगाड़ा बजाने वाले लोगों का भी होता है। उनके बिना जशपुर दशहरा महोत्सव अधूरा है। जिले में नारायणपुर चिटकवाइन क्षेत्र डोम राजा का मुख्यालय हुआ करता था। आज भी डोम राजाओं के वंशज यहां दशहरा महोत्सव में नगाड़ा बजाते हैं। वर्तमान में 27 वीं पीढ़ी इस परंपरा को निभाती आ रही है। महोत्सव में नगाड़ा व अन्य वाद्य यंत्र को बजाने से पहले रियासत के राजा रणविजय सिंह जूदेव 27 पीढ़ी पुराने नगाड़ा की पारंपरिक रीति से पूजा करते हैं। इस पुराने नगाड़ा को शाश्वती राजधानी कहा जाता है। इस गांव के पारंपरिक नगाड़ा वादक 70 वर्षीय एतवा राम बताते हैं कि इस नगाड़ा को वर्तमान राजा के पूर्वजों ने डोम राजा से युद्ध के बाद छीनकर हमारे पुरखों को दिया था। यह नगाड़ा हमारे लिए एक विरासत है। इसकी पूजा करने के बाद ही हम नगाड़ा बजाते हैं। उन्होंने बताया कि वर्तमान समय में कई प्रकार के इलेक्ट्रानिक वाद्य यंत्रों का प्रयोग पूजा-पाठ के दौरान होता हो, पर यहां के दशहरा में नारायणपुर क्षेत्र के परंपरागत वादक ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी नगाड़ा और शहनाई बजाते आ रहे हैं। वादक रामदयाल एवं भुवनेश्वर ने बताया कि आरती, हवन और दूसरी अन्य पूजा पूजा के दौरान नगाड़ों की थाप और धुन भी अलग-अलग होती है।



कौन थे डोम राजा इतिहासकार डॉ. विजय रक्षित के मुताबिक 18 वी सदी के मध्य में डोम राजवंश के अंतिम शासक रायभान थे। डोम राजा रायभान के राज में अराजकता से उनकी प्रजा में असंतोष की भावना पनप रही थी। इसी वक्त जशपुर की धरती पर बिहार के सोनपुर रियासत के राजा सुजान राय ने कदम रखा। राजा सुजान राय ने ही जशपुर रियासत की नींव रखी थी

27 पीढ़ी पुराना नगाड़ा आज भी है सुरक्षित
बैगाओं, मिरधाओं के बिना भी महोत्सव अधूरा
नगाड़ा वादकों के अलावा बैगाओं व मिरधाओं के बिना भी जशपुर दशहरा महोत्सव अधूरा है। पुराने समय में नवरात्रि के दौरान बलि देने वाले को मिरधा कहा जाता था। तपकरा क्षेत्र के रौतिया जाति के लोग बलि देने का कार्य करते थे, जिन्हें यह उपाधि दी गई थी। यह उपाधि पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। इसके अलावा बैगाओं के बिना भी दशहरा महोत्सव पूरा नहीं होता। बैगा वनवासियों के पुजारी होते हैं।

दशहरा महोत्सव के दौरान पूजा-पाठ, हवन कुंड की देखभाल बैगा ही करते आए हैं।

एतवा राम ने बताया कि उनके पास जो नगाड़ा रखा हुआ है वह 27 पीढ़ी पुराना है अौर दशहरा उत्सव में उनके द्वारा इसे लेकर जशपुर पहुंचते हैं।दशहरा उत्सव प्रारंभ होने के साथ ही उनके द्वारा इस नगाड़े की पूजा अर्चना करने के बाद उस बाजा को प्रतीकात्मक रूप से बजाने के बाद देवी पूजा के दौरान और दशहरा उत्सव तक उनके ही वंशजों के लोग उत्सव में बाजा बजाने की परंपरा निभाते हैं। खासबात यह है कि वे इसका कोई शुल्क नहीं लेते।उनका कहना है कि इस पूजा में उनकी भूमिका अहम होती है और विशेष सूर से वाद्ययंत्र को बजाया जाता है।पूर्वजों के अनुसार वे इसे अपना कर्तव्य मान कर निभाते चले आ रहे हैं।

उनका यह भी कहना है कि उनके समाज में पढ़े लिखे लोग भी हैं लेकिन इस उच्च परंपरा को निभाना गौरव की बात समझते हैं।

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