युवा IAS, कभी कम्प्यूटर गेम बनाते थे, आज संभालते हैं सारा शहर!

इंटरव्यू: युवा IAS, कभी कम्प्यूटर गेम बनाते थे, आज संभालते हैं सारा शहर!

यह हैं भोपाल म्यूनिसिपल कार्पोरेशन (बीएमसी) के कमिश्नर विशेष गढ़पाले। उम्र 32 वर्ष; और बैच वर्ष 2008! यानी प्रशासनिक अनुभव करीब 6 वर्ष। लेकिन इतने अल्प समय में भी विशेष अपनी विशेषताओं के लिए पहचाने जाने लगे हैं। पढि़ए एक युवा आईएएस की जुबानी; उसके जीवन, संघर्ष और कार्यशैली की कहानी।

भोपाल। यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है। 1984 की गैस त्रासदी ही अब तक भोपाल की अंतरराष्ट्रीय पहचान रही है। लेकिन यह पहचान भोपालियों के लिए कोई गौरव की बात नहीं; बल्कि आजन्म-कष्ट और शताब्दियों तक भोगने वाली जिंदगी का फलसफा भर है।

वर्ष, 2009 में भोपाल में बस रेपिड ट्रांजिट सिस्टम (बीआरटीएस) का सफर शुरू हुआ। तब तक शायद ही किसी को ऐसी उम्मीद रही होगी, कि बीआरटीएस न सिर्फ भोपाल; बल्कि देश में एक नई पहचान स्थापित करेगा। भोपाल शहर की जीवनशैली और स्तर दोनों के लिए यह विशेषताओं भरा साबित होगा।

भोपाल बीआरटीएस तमाम तकनीकी और व्यावहारिक दिक्कतों को सुलझाते हुए भोपाल की एक अलग पहचान बना है। इसे विशेषज्ञों ने तुलनात्मक रूप से अहमदाबाद(गुजरात) से बेहतर माना है।

बीएमसी कमिश्नर विशेष गढ़पाले बगैर लाग-लपेट के स्वीकारते हैं-मैं मानता हूं कि, बीआरटीएस में खामियां रही होंगी या अब भी दिखाई दे रही हों, लेकिन शुरुआत तो कहीं से करनी ही होती है। काम होगा, तभी परेशानियां और त्रुटियां सामने आएंगी। अगर हम रुकें नहीं; थकें नहीं और बगैर निराश हुए बराबर उस कार्य में जुटे रहें, तो सारी समस्याएं एक-एक करके खत्म हो जाती हैं।

विशेष को हाल में मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी ने विधानसभा चुनाव में प्रदेशस्तर पर उल्लेखनीय कार्य के लिए प्रशंसा पत्र से नवाजा है। विशेष कहते हैं, मेरा मानना है कि जिंदगी की तमाम जिम्मेदारियों में 100 प्रतिशत नंबर लाने वाले ही सफल नहीं हैं, 33 प्रतिशत वाले भी उतने ही बेहतर हैं। क्योंकि उन्होंने पास होने का जतन किया और असफलता की लाइन को पार किया। अगर आपको कुछ अच्छा हासिल करना है, तो सबकी सुनो, क्योंकि एक अच्छा श्रोता ही समस्याओं का समाधान ढूंढ पाता है।
मैं सदैव अपने आसपास सबकुछ अच्छा देखना चाहता हूं
मूलत: मैं बालाघाट से हूं। मेरे पापा स्व. आईडी गढ़पाले स्टेट बैंक आफ इंडिया(एसबीआई) में थे। उनका ट्रांसफर होता, तो मेरा भी स्कूल बदल जाता। यानी मेरी स्कूलिंग कई शहरों में हुई। मैं संवेदनशील व्यक्तित्व का हूं। हर चीज मुझे छू जाती है। मैं अपने आसपास एक बेहतर जिंदगी देखना चाहता था। उस वक्त सोचता था कि कलेक्टर ही एक ऐसा व्यक्ति है, जो अपने शहर में सबकुछ करता है। उसके पास वो सारे अधिकार हैं, जो एक शहर को बेहतर बना सकते हैं। साफ-सुथरा बना सकते हैं। वह करप्शन पर कंट्रोल कर सकता है। वो जनता के दु:ख-दर्द और उनकी समस्याओं का समाधान करने की ताकत रखता है, अधिकार रखता है। बस मैं भी कलेक्टर बनने का सपना देखने लगा।
हालांकि उस वक्त तक रास्ता कुछ अलग था। मैं राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय(आरजीपीवी) से कम्प्यूटर साइंस में ग्रेजुएशन कर रहा था। उसी दौरान अहमदाबाद बेस्ड एक इंस्टीट्यूट से कम्प्यूटर ग्राफिक्स का कोर्स भी किया। मैंने एक गेम डिजाइन किया था, जो काफी पसंद किया गया। उस प्रोत्साहन ने ग्राफिक्स डिजाइनर बनने की ओर प्रेरित किया। लेकिन ऐसा नहीं हो सका(हंसते हुए)। यह भी दिलचस्प है कि एक(अपनी ओर इशारा करते हुए) कम्प्यूटर गेम डिजाइनर स्पोट्र्स पर्सन कभी नहीं रहा।
 
मेरे बड़े भाई इच्छित का राज्य प्रशासनिक सेवा में चयन हो चुका था। तब लगा कि अब शायद कलेक्टर बनने का मेरा सपना भी उनकी सहायता से साकार हो सकता है। उन्होंने प्रेरणा दी और मैंने दिल्ली जाकर कोचिंग शुरू कर दी। वर्ष, 2008 में मेरा एक साथ आईएएस और एमपीपीएससी में चयन हुआ। एमपीपीएससी में रैंक 48 थी।
इंटरव्यू: युवा IAS, कभी कम्प्यूटर गेम बनाते थे, आज संभालते हैं सारा शहर!


अधिकार मिलने से सबकुछ संभव नहीं होता...
जब मैं प्रोविशनल पीरियड में पन्ना में सहायक कलेक्टर और एसडीएम था, तब महसूस हुआ कि एक अधिकारी होना कोई गौरव की बात नहीं; बल्कि अपने अधिकारों का लोगों के हितों में ठीक से इस्तेमाल करना ही सही मायने में गौरवान्वित करता है।
 
बुंदेलखंड मप्र के पिछड़े क्षेत्रों में शुमार है। गरीबी, बेरोजगारी और शिक्षा का अभाव ये तमाम चीजें जीवनशैली को बेहतर नहीं होने देतीं। भौगोलिक दृष्टि से भी वो क्षेत्र मेरे लिए एक चुनौती था। 64 प्रतिशत जंगल और बाकी भूमि अस्तव्यस्त। स्कूलों में टायलेट बनवाना भी कोई सरल काम नहीं था। वहां मैंने तीन कलेक्टरों एम सेलवेंद्रम, अजीत कुमार और केसी जैन के अधीनस्थ रहकर बहुत सीखा।
 
संघर्ष कभी खत्म नहीं होते
दो महीने पन्ना जिले की गुनौर जनपद में सीईओ रहा। यहां एक नदी को पुनर्जीवन योजना के तहत फिर से जीवित करना था। यह कार्य मनरेगा के तहत होना था। मैं घंटों धूप में पैदल घूमा, सर्वे किया, कार्य मंजूर कराए। तभी मेरा ट्रांसफर हो गया। अफसोस उस नदी को जीवित नहीं कर पाया। इसने सिखाया कि यह जरूरी नहीं कि; आपका परिश्रम हर बार कामयाब हो, हां; वो आपको एक अनुभव अवश्य दे जाता है कि आगे कोई कार्य कैसे करना है।
यहां मैं नदी को भले ही नहीं जिला पाया, लेकिन अपने प्रोविशनल पीरियड के दौरान मैं यहां का पहला ऐसा अधिकारी था, जो मुख्यालय में ठहरता था। बाकी पन्ना से अपडाउन करते रहे। मुझे संतोष मिला कि मैंने बड़ी संख्या में जनता के प्रकरणों का निपटारा किया।
अड़चनें तो आती रहेंगी...
मैं आपको एक किस्सा सुनाता हूं, जिससे यह साबित होगा कि अधिकारी होना ही सारी समस्याओं की एकमेव चाबी नहीं है। आम पब्लिक की समस्याओं को निपटाने आपको आम आदमी बनकर रहना होगा। जब मैं खजुराहो में पदस्थ था, तब वहां वर्ष, 1978 से कूटनी बांध का कार्य चल रहा था। एनटीपीसी का बिजली प्रोजेक्ट शुरू होने जा रहा था। मेरे कार्यकाल में बांध को भरा जाना था। भू-अर्जन की प्रक्रिया लगातार चल रही थी। पथरिया और एक समीपवर्ती गांव के लोग किसी भी कीमत पर जमीन छोडऩे को राजी नहीं थे। हमने 7 दिन कैंपिंग की। रात-रातभर गांव में जाकर बैठा। लोगों को बांध से मिलने वाले फायदे समझाए।
 
दरअसल, हमने इन गांवों में जाकर पाया कि कुछेक व्यक्ति गांववालों को भड़का रहे हैं। तब मैंने तय किया कि जब तक इन लोगों को नहीं समझाया जाएगा, तब तक वे बांध में अड़चन डालते रहेंगे। वे बात-बात पर बंदूक निकाल लेते थे। कैंपिंग के कुछ महीने पहले गोलियां भी चल चुकी थीं। अधिकारी डरे हुए थे।
 
मेरा गनमैन गन सहित बगैर सूचना दिए छुट्टी पर चला गया। मेरे लिए यह एक बड़ी चुनौती थी। बगैर सुरक्षा के गांववालों के बीच जाना, खासकर तब; जब वे बांध में पानी आता देख उग्र हो रहे थे। हम डरे नहीं। मैं, एक नायब तहसीलदार और ड्राइवर तीनों जन उन्हीं लोगों के घर के सामने चबूतरे पर खटिया बिछाकर बैठे, जो बांध को लेकर लोगों को भड़का रहे थे। सबसे पहले हमने उन्हें समझाया और फिर धीरे-धीरे गांव वालों को राजी किया। आखिरकार गांव खाली हुआ। हमने संतोष की सांस ली।
 
मुझे अच्छी तरह याद है। रात के 12 बजे पानी गिरना शुरू हुआ। मुझे एक सज्जन ने फोन पर सूचना दी कि बांध में पानी भरना शुरू हो गया है। अगले दिन सुबह 7 बजे हम बांध पर खड़े होकर धीरे-धीरे पानी भरने का नजारा देख रहे थे। वो मेरे लिए एक अत्यंत सुखद अनुभव था।


भोपाल मेरे सपनों का शहर...
वर्ष, 2012 में इंदौर ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट के लिए मुझे और मेरे मित्र किरण गोपाल को लाया गया। किरण अभी बालाघाट में कलेक्टर है। तब मैं यहां उद्योग विभाग में डिप्टी सेक्रेट्री था। इस मीट से हमें सीखने को मिला कि, अपने प्रदेश को विकास की ओर ले जाने की दिशा में कौन-कौन से उपाय सार्थक साबित हो सकते हैं। उसके बाद मुझे जनवरी 2013 में नगर निगम कमिश्नर की चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई।
मुश्किलें और चुनौतियां हर जगह पोस्टिंग के दौरान रहीं, लेकिन बीएमसी का कमिश्नर होना इसलिए भी अत्यंत चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि यह सरकारी संस्थान एक पालक की भूमिका निभाता है। सारे शहर की समस्याएं चाहे वो पानी हो, सड़क हो, स्ट्रीट लाइट, ट्रैफिक, साफ-सफाई या इन्फ्रास्ट्रक्चर; सभी को सबकी आवश्यकताओं के अनुसार तैयार करना, व्यवस्थित करना, साकार करना नगर निगम का ही दायित्व है। यहां जरा-सी लापरवाही, गलतियां या चूक एकदम छवि खराब कर देती है।
 
दो अचीवमेंट हमारी टीम के खाते में हैं, लेकिन करना अभी बहुत कुछ बाकी है। जब मैंने बीएमसी कमिश्नर का दायित्व संभाला, तो सबसे पहले मेरे सामने बीआरटीएस को बगैर किसी रुकावट और त्रुटियों के साकार करना था।
 
बीआरटीएस का जिक्र यहां इसलिए भी कर रहा हूं क्योंकि, इसने भोपाल को एक नई गति दी है, दिशा दी है। देश में कई जगह बीआरटी कॉरिडोर में बसें दौड़ रही हैं, सबकी अपनी-अपनी तकनीकी और व्यावहारिक दिक्कतें हैं। भोपाल भी इससे अछूता नहीं हो सकता, बावजूद हमें संतुष्टि है, गर्व है कि भोपाल का बीआरटीएस अहमदाबाद से श्रेष्ठ साबित हुआ है। ऐसा मैं नहीं कहता, तकनीकी विशेषज्ञों का मानना है। सिर्फ हमारा बीआरटी कॉरिडोर ऐसा है, जिसमें हमने जगह और जरूरतों के हिसाब से एडिशनल फीचर जोड़े हैं। यानी हमारे कॉरिडोर में छोटी-बड़ीं, हर तरह की बस आसानी से संचालित हो सकती है।
भोपाल में 225 बसें संचालित हो रही हैं। इनमें 68 एसी और नॉन एसी बसें बीआरटी कॉरिडोर में चल रही हैं। बैरागढ़ से मिसरोद तक करीब 24 किलोमीटर बीआरटी कॉरिडोर को बनाना अत्यंत टेड़ी खीर रहा। कहीं विरोध हुआ, तो कहीं व्यावहारिक दिक्कतें आईं, लेकिन एक दृढ़ निश्चय था कि इसे करना है बस। मैं खुद सड़कों पर घूमा ताकि, इस योजना से जुड़ा हर व्यक्ति, चाहे वो छोटा कर्मचारी हो या अन्य कोई अफसर; हर रुकावट को पार करते हुए भोपाल को एक सौगात सौंपे।
बीआरटीएस को भोपालवासियों ने सराहा। अब मेरा प्रयास इसे इंटेलिजेंट ट्रांसपोर्ट सिस्टम से जोडऩा है। बोर्ड आफिस बस डिपो पर हमने इसका डेमो किया था, जिसके अच्छे परिणाम निकले। इसके लिए ताइवान से मशीनों के रूप में तकनीकी सहायता ली जा रही है। इस सिस्टम से सारी बसें ऑनलाइन सिस्टम से जुड़ जाएंगी। यानी बस में कितनी सवारी हैं, कितना फेयर कलेक्ट हुआ(रियल टाइम फंड ट्रांसफर), बस की मौजूदा स्थिति आदि सबकी जानकारी मिनटों में सर्वर कम्प्यूटर तक पहुंच जाएगी।
 
इसके अलावा वेंडिंग मशीनें भी लगने जा रही हैं। बसों में स्लाइडिंग गेट, सीसीटीवी कैमरे भी प्रस्तावित हैं। इन सबके बाद भोपाल बीआरटीएस निश्चय ही अर्बन डेवलपमेंट के मामले में इस शहर को एक नई पहचान देगा।
बीएमसी के 100 प्रतिशत कम्प्यूटराइजेशन का जिक्र करना भी चाहूंगा। मैं कम्प्यूटर साइंस ग्रेजुएट हूं, इसलिए बीएमसी को ऑनलाइन करने में बहुत ज्यादा दिक्कतें नहीं आईं। इससे हमें दो तरफा फायदा हुआ। पहला अंदरुनी समस्याओं और गड़बडिय़ों पर अंकुश लगा। दूसरा; बीएमसी के सारे टैक्स की रसीदें कम्प्यूटराइज्ड मिलने से लोगों को सहूलियत हुई। हमने 7 सुविधा केंद्र खोले, जहां जाकर भी लोग बीएमसी की सेवाएं ले सकते हैं। बिल्डिंग परमिशन, नक्शे ऑनलाइन मिलने से पब्लिक को दफ्तर के चक्कर काटने से छुटकारा मिला।
बीएमसी के कम्प्यूटराइजेशन से और भी कई फायदे हुए। करप्शन रुका और हमारा राजस्व 33.8 प्रतिशत बढ़ गया। अब हम मोबाइल एप लाने जा रहे हैं। यानी घर बैठे बीएमसी आपको सेवाएं देगा। हमारा प्रयास बीएमसी को पेपरलेस करना है। इससे पर्यावरण भी बचेगा और कागजों पर होने वाला बेवजह खर्चा भी। हालांकि कुछ दिक्कतें हैं, जैसे विशेषज्ञों की कमी आदि। फिर भी जो होगा, बेहतर होगा।
लोग कहें, वाकई यह नवाबी शहर है...
झीलों के इस शहर को खूबसूरत और व्यवस्थित बनाना अकेले किसी एक व्यक्ति के बस की बात नहीं है। यह तो एक सामूहिक सामाजिक जिम्मेदारी है। बीएमसी ने बोट क्लब संवारा, पार्क संवारे, ट्रैफिक व्यवस्थाएं बेहतर कीं, बैरागढ़, न्यूमार्केट और एमपी नगर में मल्टीलेवल पार्किंग पर कार्य शुरू हो गया है। अब इन्हें और बेहतर बनाने या दुरुस्त रखने की जिम्मेदारी हम सबकी है।
बीएमसी ने 26 जनवरी, 2013 से घरों से कचरा उठाने की योजना शुरू की। 15 अगस्त, 2013 से सॉलिड बेस्ट मैनेजमेंट के तहत अलग-अलग तरह का कचरा उठाने का इंतजाम किया। भानपुर खंती की शिफ्टिंग चल रही है। नई जगह वेस्ट एनर्जी प्लांट लगने जा रहा है। यह सब हमारी टीम के लिए उपलब्धि हैं। मेरी ख्वाहिश है कि हमारा गौरव भोपाल शहर और बेहतर बने।
 INTERVIEW: युवा IAS, कभी कम्प्यूटर गेम बनाते थे, आज संभालते हैं सारा शहर!

व्यक्तिगत जीवनशैली...
निश्चय ही लोगों को लगता होगा कि अफसरों की जीवनशैली शान-ओ-शौकत से भरी होती होगी, लेकिन यह अधूरा सच है। नगर निगम में आकर मेरी रातों की नींद उड़ गई है। न कोई छुट्टी और न कोई तीज-त्यौहार। दिन की फाइलें उसी रात निपटाना कोशिश होती है, ताकि अगले दिन नई चर्चा, नई शुरुआत हो सके। वर्ष, 2011 में मेरी शादी रशिम से हुई। वो बैंक मैनेजर है। दोनों व्यस्त। लेकिन दोनों को इसका कोई मलाल नहीं। क्योंकि हम दोनों ही अपनी नैतिक, पारिवारिक, सामाजिक और प्रशासनिक जिम्मेदारियां समझते हैं।
 
वो जो खिला देती है, बगैर ना-नुकूर खा लेता हूं। मुझे सबकुछ पसंद है। हां, उसके हाथ के छोला-पुलाव की कुछ बात अलग है। शुद्ध शाकाहारी हूं, इसलिए हरी सब्जियां अधिक लेता हूं। घर का खाना पसंद करता हूं। आपको ताज्जुब होगा, शादी या अन्य समारोह में भी घर से खाना खाकर जाता हूं। वहां थोड़ा-बहुत ले लेता हूं। जैसे आइसक्रीम आदि (हंसते हुए)। मैं किसी का दिल नहीं दु:खा सकता, इसलिए आमंत्रण अस्वीकार नहीं करता।
शादी से पहले फिल्में देखता था, लेकिन अब आमतौर पर संभव नहीं हो पाता। शादी के पहले अकेले टॉकीज चला जाता था, लेकिन अब उसके पास समय नहीं है और अब अकेले जा नहीं सकते(हंसते हुए)। वैसे परिणीता चोपड़ा की फिल्म हंसी तो फंसी देखी। शाहरुख का अभिनय अच्छा लगता है। sabhar :http://www.bhaskar.com/

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