हर आत्मा में है परमात्मा


हर आत्मा में है परमात्मा

भौतिक प्रकृति निरन्तर परिवर्तित होती रहती है.
सामान्यत: भौतिक शरीरों को छह अवस्थाओं से निकलना होता है- वे उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं, कुछ काल तक रहते हैं कुछ गौण पदार्थ उत्पन्न करते हैं, क्षीण होते हैं और अन्त में विलुप्त हो जाते हैं. यह भौतिक प्रकृति अधिभूत कहलाती है. यह किसी निश्चित समय में उत्पन्न की जाती है और किसी निश्चित समय में विनष्ट कर दी जाती है.
परमेश्वर के विराट स्वरूप की धारणा, जिसमें सारे देवता तथा उनके लोक सम्मिलित हैं, अधिदैवत कहलाती है. प्रत्येक शरीर में आत्मा सहित परमात्मा का वास होता है, जो भगवान कृष्ण का अंश स्वरूप है. यह परमात्मा अधियज्ञ कहलाता है और हृदय में स्थित होता है.
परमात्मा प्रत्येक आत्मा के पास आसीन है और आत्मा के कार्यकलापों का साक्षी है तथा आत्मा की विभिन्न चेतनाओं का उद्गम है. यह परमात्मा प्रत्येक आत्मा को मुक्त भाव से कार्य करने की छूट देता है और उसके कार्यों पर निगरानी रखता है. परमेश्वर के इन विविध स्वरूपों के सारे कार्य उस कृष्णभावनाभावित भक्त को स्वत: स्पष्ट हो जाते हैं, जो भगवान की दिव्यसेवा में लगा रहता है.
अधिदैवत नामक भगवान के विराट स्वरूप का चिन्तन उन नवदीक्षितों के लिए है जो भगवान के परमात्म स्वरूप तक नही पहुंच पाते. अत: उन्हें परामर्श दिया जाता है कि वे उस विराट पुरुष का चिन्तन करें जिसके पांव अधोलोक हैं, जिसके नेत्र सूर्य तथा चन्द्र हैं और जिसका सिर उच्चलोक है.
जो कोई भी कृष्णभावनामृत में अपना शरीर छोड़ता है, वह तुरन्त परमेश्वर के दिव्य स्वभाव को प्राप्त होता है. परमेश्वर शुद्धातिशुद्ध है, अत: जो व्यक्ति कृष्णभावनाभावित होता है, वह भी शुद्धातिशुद्ध होता है. श्रीकृष्ण का स्मरण उस अशुद्ध जीव से नहीं हो सकता जिसने भक्ति में रहकर कृष्णभावनामृत का अभ्यास नहीं किया. अत: मनुष्य को चाहिए कि जीवन के प्रारम्भ से ही कृष्णभावनामृत का अभ्यास करे.
(प्रवचन के संपादित अंश श्रीमद्भगवद्गीता से साभार) sabhar :http://www.samaylive.com/

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