पचास साल बाद की दुनिया-देवेंद्र मेवाड़ी

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photo : googale


कितनी तेजी से बदल रही है हमारी यह दुनिया! जो आज है, वह कल नहीं था। जो कल होगा, वह आज नहीं है। आइए, कल्पना करते हैं कि कल क्या होगा हमारे इस खूबसूरत ग्रह का? हमारी इस दुनिया का?
काश, हमारे पास ऐसी कोई टाइम मशीन होती जो हमें समय की सैर कराती। पीछे और पीछे अतीत में ले जाती, जहां हम देखते-बियाबान जंगल, जंगल में विचरते हजारों जंगली जानवर और उनके शिकार की टोह में भटकता आदिमानव। गुफा में उन जानवरों के बच्चों को पालता उसका परिवार। घास के दाने बोती, छिटकती आदिम औरत। आसमान को ताकते, चिड़ियों को उड़ते हुए देखते आदिमानव जो शायद सोच रहे होते कि काश हम भी ऐसे उड़ते, चांद-तारों को छू सकते…
हम टाइम मशीन में आगे बढ़ते और चौंक जाते यह देख कर कि यह हम कहां आ गए? वहां हमें दिखतीं, विशाल नदियां, हरे-भरे खेत, झोपड़ियां। खेतों में काम करते आदमी, औरतें, खेलते बच्चे। भौं-भौं भौंकते कुत्ते, गायों-भैंसों के झुंड, घोड़े। हम देखते कि गुफाओं में रहने वाले परिवार बस्तियां बना कर रह रहे हैं। जंगली जानवर पालतू बना लिए गए हैं। खेतों में खेती होने लगी है। आदमी के कल के सपने साकार हो गए हैं।
हम फिर आगे बढ़ते और देखते आसमान में चिड़ियों की तरह उड़ता आदमी। उसका उड़ने का सपना सच हो गया! हम देखते सागर में तैरते, जहाजों में यात्रा करते और पनडुब्बियों में सागर तल की सैर करते आदमी। पटरियों पर धड़धड़ाता इंजन, सीटी देकर भागती रेल और मोटर-कारें।
फिर हमें दिखाई देते विकास की अंधी दौड़ में धराशायी होते सदियों के साथी हरे-भरे पेड़, उजड़ते जंगल। गांवों को लीलते शहर। सीमेंट कंक्रीट के जंगल…महानगर, जहां हवा बदली, फिजा बदली, मौसम का मिजाज बदला। आदमी परेशान, पशु परेशान, पक्षी परेशान। विकास की इस दौड़ में आखिर कहां जाएगा यह आदमी?
आज से पचास वर्ष पहले मैंने सफेद मिट्टी के घोल में नरकुल की कलम डुबा कर लकड़ी की तख्ती पर लिखना सीखा था। दिन के उजाले में या रात को छोटे-से लैंप या लालटेन के उजाले में पढ़ता था। गांव में बिजली नहीं थी। टेलीफोन भी नहीं था। पहली बार जब रेडियो का डिब्बा आया तो लोग दूर-दूर से उसे देखने-सुनने आते थे। टेलीविजन, फोन, मोबाइल के बारे में तो हम सोच भी नहीं सकते थे।
लेकिन, पचास वर्ष बाद आज हमारे पास शानदार पेन, कापियां हैं, केलकुलेटर हैं, मोबाइल फोन हैं, टेबलेट, कंप्यूटर और लैपटाप हैं, टेलीविजन हैं, खाना पकाने की गैस है, प्रेशर कुकर हैं, फ्रिज हैं, माइक्रोवेव और ओवन हैं। गर्मी से बचने के लिए ए सी है, कपड़े धोने-सुखाने की मशीन है। बच्चे मोबाइल और पी एस पी पर वीडियो गेम खेल रहे हैं। चारों ओर मोटरकारें, रेलगाड़ियां दौड़ रहीं हैं। हवाई जहाज उड़ रहे हैं। आदमी चांद पर पहुंच चुका है। अंतरिक्षयान ग्रह-नक्षत्रों के रहस्यों का पता लगा रहे हैं, आदमी के बनाए वाएजर यान सौरमंडल के पार अनंत अंतरिक्ष में पहुंच चुके हैं, मानव मंगल ग्रह पर विजय की तैयारियों में जुटा हुआ है। यानी, पचास वर्ष के भीतर हमारी दुनिया की तस्वीर ही बदल गई है।
यह बदलाव इतनी तेजी से हो रहा है कि पचास वर्ष बाद की दुनिया को तो शायद पहचानना भी मुश्किल हो जाएगा। वैज्ञानिक कहते हैं, कल कारें उड़ेंगी। कारों का भी दिमाग होगा, कम्प्यूटर का दिमाग। इसीलिए कार अपने आप चलेगी। उसे बस वह जगह बतानी होगी, जहां जाना है। वह न किसी से टकराएगी, न रास्ता भूलेगी। न यातायात के नियम तोड़ेगी। इसी तरह रेलगाड़ियां और हवाई जहाज भी कम्प्यूटर के दिमाग से चलेंगे। गांव और शहर सूरज की ऊर्जा से जगमगाएंगे क्योंकि धरती के गर्भ में डीजल-पेट्रोल का भंडार दिन-ब-दिन घटता ही जाएगा। डीजल-पेट्रोल ही क्या, पानी के लिए भी त्राहि-त्राहि मच जाएगी, इतनी कि शायद पानी के लिए विश्वयुद्ध छिड़ जाए।
तब मकान अपनी देखभाल खुद करेंगे। शाम होते ही उनमें अपने आप रोशनी जल जाएगी। सुबह उजाला होने पर बुझ जाएगी। सर्दियों में घर अपने आप गर्म और गर्मियों में ठंडे हो जाएंगे। घरों, कल-कारखानों और खेत-खलिहानों में काम करने के लिए रोबोट होंगे। घर में रोबोट डागी और रोबोट पूसी होगी। दिमागदार खिलौने बच्चों का मन बहलाएंगे। रोबोट बूढ़े-बुजुर्गों को सुबह-शाम की सैर कराएंगे। उनकी तीमारदारी करेंगे। उनकी संतानें आफिसों, माल-बाजारों या क्लबों में व्यस्त होंगी।  स्कूल-कालेजों में रोबोट शिक्षक पढ़ाएंगे। वे घर में कम्प्यूटर के स्क्रीन पर भी पढ़ाएंगे। पुस्तकें इंटरनेट पर भी पढ़ी जाएंगी। लाइब्रेरी नेट पर उपलब्ध होगी।
हो सकता है, आने वाले पचास वर्षों में हमारी मुलाकात किसी और ग्रह के एलियनों से हो जाए! वैज्ञानिक कहते हैं कि इस विशाल ब्रह्मांड में अरबों-खरबों ग्रह-उपग्रह हैं। हमारी पृथ्वी की तरह उनमें कहीं तो जीवन होगा। जीवन होगा तो वे भी हमारी तरह दूसरे ग्रहों में जीवन की खोज कर रहे होंगे। इसलिए हो सकता है, आने वाले समय में हमें एलियन मिल जाएं या फिर उन्हें हम मिल जाएं।
हो सकता है,तब तक मानव चांद पर कोई बस्ती बना ले और वहां के अंतरिक्ष अड्डों से अन्य ग्रहों के लिए उड़ान भरे। मंगल ग्रह पर भी तब तक विजय प्राप्त कर ली जाएगी। हो सकता है, तब तक हमारे देश के अंतरिक्ष यात्री भी चंद्रमा और मंगल पर उतर चुकें हों।
आने वाले पचास वर्षों में खेती की जमीन के घटते जाने से खाद्यान्नों के उत्पादन पर बुरा असर पड़ेगा लेकिन नए वैज्ञानिक तरीकों से उत्पादन बढ़ाने की कोशिशें की जाएंगी।  जमीन घटने के कारण विशाल खड़ी इमारतों की तमाम मंजिलों में फसलें उगाई जाएंगीं। इमारतों के भूतल के बाजार में अनाज और फल-सब्जियां बेची जाएंगी। घर की रसोई में खाना पकाने का रिवाज शायद घटता जाएगा और तुरत-फुरत भोजन का प्रचलन बढ़ता जाएगा। बची-खुची जमीन और खेत-खलिहानों में रोबोट काम करेंगे। रोबोट गाय-भैंसों का दूध भी दुहेंगे और उन्हें समय पर चारा-दाना भी देंगे।
वैज्ञानिकों को लगता है कि प्रजनन की नई तकनीकों के कारण लोग मनचाही स्वस्थ संतान पैदा कर सकेंगे और शुक्राणु बैंक से प्राप्त स्वस्थ शुक्राणुओं से किराए की कोख से संतान सुख प्राप्त कर सकेंगे। शुक्राणु तथा डिंब बैंकों से शुक्राणु और डिंब खरीद कर अविवाहित अथवा एकाकी युवतियां या ‘गे’ दम्पती भी किराए की कोख से अपनी संतान पैदा करा सकेंगे। कई कामकाजी महिलाएं नौ माह तक गर्भधारण का झंझट नहीं पालना चाहेंगीं। दिवंगत लोगों के शुक्रागुणों और डिबों से वर्षों बाद भी संताने पैदा की जा सकेंगी। लालन-पालन की कठिन जिम्मेदारी और महंगाई के कारण लोग बच्चों की संख्या एक या दो तक ही सीमित रखना चाहेंगे। इसके बावजूद विश्व की मौजू़दा 7 अरब आबादी वर्ष 2050 तक 8.5 से 10 अरब तक बढ़ जाएगी।
चिकित्सा विज्ञान की नई खोजों के कारण बेहतर स्वास्थ सेवाएं उपलब्ध होंगी और लोगों की उम्र बढ़ेगी। शतायु लोगों की संख्या बढ़ेगी। वे अपने 70-80 साल के बच्चों को सलाह देंगे। लेकिन, पुरानी पीढ़ी के उम्रदराज़ लोगों से युवा पीढ़ी में रोजगार, घरेलू सम्पत्ति और दोनों पीढ़ियों के जीने के तौर-तरीकों में अंतर होने के कारण मनमुटाव बढ़ेगा। वे साइबर मीडिया के जरिए विरोध प्रकट करके संचार सुविधाओं को ठप करने की कोशिश करेंगे। वही साइबर मीडिया का विश्वव्यापी नेटवर्क जिससे आज हमारी हवाई, रेलवे, स्वास्थ्य और बैंकिंग जैसी महत्वपूर्ण सेवाएं जुड़ी हुई हैं।
टेलीविजन आया तो लगा अब रेडियो गया और सिनेमा की भी छुट्टी हो जाएगी। बुद्धू-बक्से के रूप में सारी दुनिया हमारे घर भीतर सिमट आई। लेकिन, अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ रेडियो और सिनेमा आज भी मौजूद है और पचास साल बाद भी रहेगा। एफ एम के रूप में रेडियो फिर से घर-घर में पहुंच गया है। इसी तरह कम्प्यूटर, टेबलेट और इंटरनेट से किताबें विदा नहीं होंगी। नए गैजेटों का मोह इनकी संख्या घटा भले ही दे, इन्हें गायब नहीं कर सकेगा। पचास वर्ष बाद भी किताबों के कागज की खुशबू सूंघने और उन्हें पृष्ठ-दर-पृष्ठ पढ़ने और सहेजने वाले शौकीन मौजूद रहेंगे।
आज करोड़ों लोग हथेली में समा जाने वाले नन्हें मोबाइल का उपयोग करके दुनिया के कोने-कोने में बात कर रहे हैं। इस नन्हे गैजेट ने टेलीफोन की सुविधा देने के साथ-साथ कैमरे और संगीत की सुविधा भी मुहैया कर दी है। यह अपने मालिक की मौजूदगी का पता बता रहा है। पचास वर्ष बाद यह कई और सुविधाएं दे रहा होगा। कल यह हमारे मन-मस्तिष्क के साथ ही शरीर की गतिविधियों को भी पढ़ेगा और फेमिली डाॅक्टर को हमारे दिलो-दिमाग उसकी खबर देगा।
दिलो-दिमाग की खबर वह नन्हीं-सी चिप भी देगी जो हमारे दिमाग में फिट कर दी जाएगी। वह हमें हमारे प्रियजनों और दोस्तों से ही नहीं बल्कि फेमिली डाक्टर और कम्प्यूटर, इंटरनेट से भी जोड़ देगी। तब गणित के सारे गुणा-भाग और किताबों का ज्ञान हमारे दिमाग में भरा होगा। इंटरनेट से जुड़ कर हम मन ही मन सारी दुनिया का ज्ञान टटोल रहे होंगे।
ज्ञान तो टटोल रहे होंगे, लेकिन डर यह भी है कि वह चिप हमें दुनिया सौंप कर कहीं हमारी एक अलग एकाकी दुनिया न रच दे। आज नगरों-महानगरों की भीड़ में, सड़क-चैराहों पर बसों और रेलगाड़ियों तक में कान से मोबाइल चिपकाए लोग साथ होते हुए भी अपनी-अपनी अलग दुनिया में खोए रहते हैं। उन्हें पता नहीं कि उनके आसपास भी लोग हैं, सहयात्री हैं जिनसे बातें की जा सकती हैं, यात्रा और जीवन के अनुभव बांटे जा सकते हैं, उन अनुभवों से कुछ सीखा-सिखाया जा सकता है।
लेकिन, नहीं, उनकी दुनिया मोबाइल में सिमट गई है। वे कान पर मोबाइल लगा कर गुमनाम आते हैं और मोबाइल लगाए-लगाए गुमनाम निकल जाते हैं। यह अकेलापन इस नन्हे गैजेट की देन है और मोबाइल इस्तेमाल करने वालों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ इनसे आदमी के जीवन में अपरिचय और अकेलेपन का अंधेरा भी बढ़ता जा रहा है। अपने साथी मनुष्यों के साथ सुख-दुख बांटने का सहज मोह खत्म होता जा रहा है।
कम्प्यूटर, इंटरनेट और फेसबुक भी इसी तरह आदमी का अकेलापन बढ़ा रहे हैं। यह अकेलापन आदमी को धीरे-धीरे अपने आसपास ही नहीं बल्कि पूरे समाज से काटता जा रहा है। पचास वर्ष बाद इसका क्या परिणाम सामने आएगा, यह उस समय के समाज विज्ञानी और मनोवैज्ञानिक बताएंगे। उस समाज की एक झलक देखने के लिए भी काश आज हमारे पास कोई टाइम मशीन होती!
 sabhar :http://devenmewari.in/

dmewari


7 मार्च 1944 को ग्राम कालाआगर, पट्टी-चौगढ़, जिला नैनीताल (उत्तराखंड) में जन्म। एम.एस-सी. (वनस्पति विज्ञान), एम.ए. (हिंदी), पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा। विगत 45 वर्षों से हिंदी में नियमित रूप से विज्ञान लेखन, अनुवाद और संपादन। प्रमुख कृतियां: ‘मेरी यादों का पहाड़’,‘मेरी विज्ञान डायरी’, ‘भविष्य’, ‘कोख’, ‘मेरी प्रिय विज्ञान कथाएं’ (विज्ञान कथा संग्रह), ‘विज्ञान प्रसंग’, ‘हार्मोन और हम’, ‘सूरज के आंगन में’, ‘विज्ञान बारहमासा’, ‘सौरमंडल की सैर’, ‘फसल­ कहें कहानी’, ‘पशुओं की प्यारी दुनिया’ आदि (लोकप्रिय विज्ञान), हमारे पक्षी, जीन और जीवन, कहानी रसायन विज्ञान की (अनुवाद)। तेरह वर्ष तक मासिक कृषि पत्रिका ‘किसान भारती’ का संपादन। ‘विज्ञान प्रसार’ फैलो (2007-08)। आकाशवाणी तथा टेलीविजन के लिए विज्ञान नाटक पटकथा लेखन / वार्ताएं, वैज्ञानिक विषयों पर व्याख्यान। हिंदी माध्यम से विज्ञान लोकप्रियकरण में उत्कृष्ट योगदान के लिए विज्ञान परिषद् प्रयाग शताब्दी सम्मान (2012), उत्कृष्ट विज्ञान लेखन के लिए प्रतिष्ठित ‘आत्माराम पुरस्कार’ (2005), राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद् (विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार) का राष्ट्रीय पुरस्कार (2000), भारतेंदु हरिश्चंद्र राष्ट्रीय बाल साहित्य पुरस्कार, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय (1994-99 तथा 2002), मेदिनी पुरस्कार, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (2009), उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान पुरस्कार (1978-79), विज्ञान परिषद प्रयाग द्वारा स्तरीय विज्ञान लेखन के लिए सम्मानित (1986) तथा ‘विज्ञान’ का ‘देवेंद्र मेवाड़ी सम्मान अंक’ प्रकाशित (2006)। सदस्यः ‘रक्षा उत्पादन विभाग की हिंदी सलाहकार समिति’ (रक्षा मंत्रालय) , भारत सरकार,

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