शिकागो में शून्य पर बोलने वाले नरेंद्र को जब एक वेश्या के सामने झुकना पड़ा

शिकागो में शून्य पर बोलने वाले नरेंद्र को जब एक वेश्या के सामने झुकना पड़ा

नई दिल्ली. देश के युवाओं को आजाद भारत का सपना दिखाने वाले महापुरुष विवेकानन्द का 4 जुलाई 1902 को निधन हुआ था। विवेकानंद के जीवन से जुड़ी तमाम कहानियां आज भी देशभर के कई विद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं। 12 जनवरी, 1863 को एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्म लेने वाले विवेकानंद का पूरा जीवन देश सेवा और भारतीय संस्कृति के प्रसार में समर्पित था। वेदांत के विख्यात और एक प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु विवेकानंद ने वर्ष1893 में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व कर पूरी दुनिया में भारत का डंका बजा दिया था। लेकिन क्या आप जानते हैं कि एक वेश्या ने नरेंद्र नाथ दत्त को उनके संन्यासी होने का अर्थ समझाया था। जानिए, पूरी दुनिया को अपनी तरफ आकर्षित करने वाले विवेकानंद के जीवन से जुड़ी कुछ खास बातों के बारे में।विवेकानंद का लोकप्रिय भाषण- 
1 सितंबर 1893 शिकागो (अमेरिका)

अमेरिका के बहनों और भाइयों

आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।
मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इस्त्राइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था। और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है। भाइयों, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है: जिस तरह अलग-अलग स्त्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद में जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, पर सभी भगवान तक ही जाते हैं।

वर्तमान सम्मेलन जोकि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है: जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं।
 
सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज हठधमिर्ता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है। कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं। अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।

साल 1898 में अल्मोडा में दिया व्याख्यान-  

स्वामी जी ने हिन्दी में अपना पहला भाषण राजकीय इण्टर कालेज अल्मोड़ा में दिया था।

विवेकानंद के इस भाषण की मुख्य बात यह थी-  
ईश्वर एक है, सर्वव्यापी है
साल 1898 में अल्मोड़ा में अपना व्याख्यान देते हुए स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि किसी भी व्यक्ति के रास्ते या विचार अलग हो सकते है, लेकिन विभिन्न धर्मो को मानने वाले लोगों का लक्ष्य एक ही होता है। सर्वव्यापी ईश्वर से एकाकार। इसलिए दो समुदायों या समूहों में आपस की लड़ाई व्यर्थ है। स्वामी जी ने देशवासियों से धर्म-संप्रदाय संबंधी मतभेदों को भुलाकर देश हित के लिए अपने प्राण न्योछावर करने का उपदेश दिया। स्वामी जी के भाषणों का संग्रह कोलम्बो से अल्मोड़ा तक नाम से प्रकाशित हुआ है।
शिकागो में शून्य पर बोलने वाले नरेंद्र को जब एक वेश्या के सामने झुकना पड़ा

विवेकानंद ने शून्य से क्यों शुरू किया था अपना भाषण

दरअसल जब विवेकानंद साल 1893 में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व करने के लिए वहां पहुंचे थे तो आयोजकों ने उनके नाम के आगे शून्य लिख दिया था। दरअसल आयोजक ऐसा करके उन्हें परेशान करना चाहते थे। भाषण देने की जगह पर विवेकानंद ने दो पेड़ों के बीच में एक सफेद कपड़ा बंधा हुआ पाया जिसके बीच में एक ब्लैक डॉट था। विवेकानंद इस बात को अच्छी तरह से समझ चुके थे। लिहाजा उन्होंने अपने भाषण की शुरूआत शून्य से की। 
शिकागो में शून्य पर बोलने वाले नरेंद्र को जब एक वेश्या के सामने झुकना पड़ा


शारदा मां के साथ घटी घटना-

स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस का देहांत हो चुका था। इसलिए अमेरिका यात्रा पर जाने से पहले वो अपनी गुरु मां शारदा (स्वामी रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नी) से आशीर्वाद लेना चाहते थे। वे गुरु माँ के पास गए, उनके चरण स्पर्श किए और उनसे कहा, मां, मुझे भारतीय संस्कृति पर बोलने के लिए अमेरिका से आमंत्रण मिला है। मुझे आपका आशीर्वाद चाहिए। इस पर मां शारदा ने कहा कि तुम आशीर्वाद लेने कल आना पहले मैं देखूंगी कि तुम आशीर्वाद लेने के पात्र भी हो या नहीं। विवेकानंद असमंजस में पड़ गए, लेकिन उन्होंने गुरु मां की आज्ञा का पालन किया और अगले दिन तय समय पर उनके घर पहुंच गए। मां उस वक्त रसोई में थीं। विवेकानंद ने वहां पहुंचकर कहा मां मैं आशीर्वाद लेने आया हूं। इस पर मां ने कहा कि ठीक है आशीर्वाद तो तुझे मैं सोच-समझकर दूंगी। पहले तुम मुझे वह चाकू उठाकर दो मुझे सब्जी काटनी है। विवेकानंद ने चाकू उठाया और मां की तरफ बढ़ा दिया। चाकू लेते हुए ही मां शारदा ने अपने आशीर्वचनों से स्वामी विवेकानंद को नहला दिया। वे बोलीं, 'जाओ नरेंद्र मेरे समस्त आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं।' नरेंद्र को समझ नहीं आया कि आखिर इस चाकू का इस आशीर्वाद से क्या नाता है। जब विवेकानंद का मन शांत नहीं हुआ तो उन्होंने मां से ही पूछ लिया कि मां आपने मुझसे चाकू क्यों उठवाया। इस पर उन्होंने बताया कि जब भी कोई दूसरे को चाकू पकड़ाता है तो धार वाला सिरा पकड़ाता है पर तुमने ऐसा नहीं किया।  

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वेश्या ने कराया नरेंद्र को संन्यासी होने का अहसास 

विवेकानंद अमेरिका जाने से पहले जयपुर के एक महाराजा के महल में रुके थे। वह महाराजा विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस का भक्त था। विवेकानंद के आगमन पर उन्होंने एक भव्य आयोजन रख दिया। इस आयोजन में वेश्याओं को भी बुलवाया गया। राजा यह भूल गया कि वेश्याओं के जरिए एक सन्यासी का स्वागत करना उचित नहीं है। विवेकानंद अभी अपरिपक्‍व थे। वे अभी पूरे संन्‍यासी नहीं बने थे। वो अपनी कामवासना और हर चीज दबा रहे थे। जब उन्‍होंने वेश्‍याओं को देखा तो उन्‍होंने अपना कमरा बंद कर लिया और बाहर नहीं आए। जब महाराजा को अपनी गलती का अहसास हुआ तो उन्होंने विवेकानंद से क्षमा मांगी। महाराजा ने कहा कि उन्होंने वेश्या को इसका रुपया दे दिया है, लेकिन यह जैसा कि देश की सबसे बड़ी वेश्या है तो अगर इसको ऐसे चले जाने को कहेंगे इसका अपमान होता। आप कृपा करके बाहर आएं। विवेकानंद बाहर आने में डर रहे थे। इतने में वेश्या ने गाना गाना शुरू किया, फिर उसने एक सन्यासी गीत गाया। गीत बहुत सुंदर था। गीत का अर्थ था: मुझे मालूम है कि मैं तुम्‍हारे योग्‍य नहीं, तो भी तुम तो जरा ज्‍यादा करूणामय हो सकते थे। मैं राह की धूल सही, यह मालूम मुझे। लेकिन तुम्‍हें तो मेरे प्रति इतना विरोधात्‍मक नहीं होना चाहिए। मैं कुछ नहीं हूं। मैं कुछ नहीं हूं। मैं अज्ञानी हूं। एक पापी हूं। पर तुम तो पवित्र आत्‍मा हो। तो क्‍यों मुझसे भयभीत हो तुम? बताया जाता है कि विवेकानंद ने अपने कमरे में सुना। वह वेश्‍या रो रही थी। और गा रही थी। उन्होंने उस पूरी स्थिति का अनुभव किया और सोचा कि वो क्या कर रहे हैं। यह बचकानी बात थी। विवेकानंद से रहा नहीं गया और उन्होंने दरवाजे खोज दिए। विवेकानंद एक वेश्या से पराजित हो गए। वो बाहर आए और बैठ गए। फिर उन्होंने डायरी में लिखा, ,ईश्‍वर द्वारा एक नया प्रकाश दिया गया है मुझे। भयभीत था मैं। जरूर कोई लालसा रही होगी। मेरे भीतर। इसीलिए भयभीत हुआ मैं। किंतु उस स्‍त्री ने मुझे पूरी तरह से पराजित कर दिया था। मैंने कभी नहीं देखी ऐसी विशुद्ध आत्‍मा। उस रात उन्‍होंने अपनी डायरी में लिखा, अब मैं उस स्‍त्री के साथ बिस्‍तर में सो भी सकता था और कोई भय न होता। इस घटना ने विवेकानंद को तटस्थ होने की सीख दी और यह बतलाया कि मन दुर्बल है और निस्‍सहाय है। इसलिए कोई दृष्‍टि कोण तय मत कर लेना।

खेतड़ी का प्रसंग-
खेतड़ी में ही स्वामी विवेकानंद ने राजपण्डित नारायणदास शास्त्री के सहयोग से पाणिनी का और पतंजलि का का अध्ययन किया था। स्वामीजी ने व्याकरणाचार्य और पाण्डित्य के लिए विख्यात नारायणदास शास्त्री को लिखे पत्रों में मेरे गुरु कहकर सम्बोधित किया है। अमेरिका जाने से पहले अजीत सिंह के निमंत्रण पर 21 अप्रैल 1893 को स्वामी जी दूसरी बार खेतड़ी गए। उन्होंने 10 मई 1893 तक खेतड़ी में प्रवास किया। इसी दौरान एक दिन अजीत सिंह स्वामीजी फतेहविलास महल में बैठे शास्त्र चर्चा कर रहे थे। तभी नर्तकियों ने वहां आकर गायन वादन का अनुरोध किया। इस पर संन्यासी होने के नाते स्वामीजी उसमें भाग नहीं लेना चाहते थे और वह उठकर जाने लगे तो नर्तकियों की दल नायिका मैनाबाई ने आग्रह किया कि स्वामीजी आप भी विराजें, मैं यहां भजन सुनाऊंगी इस पर स्वामी जी बैठ गए। नर्तकी मैनाबाई ने महाकवि सूरदास रचित प्रसिद्ध भजन प्रभू मोरे अवगुण चित न धरो। समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करो, सुनाया तो स्वामी जी की आंखों से आंसू बहने लगे। उन्होंने उस पतिता नारी को ज्ञानदायिनी मां कहकर सम्बोधित किया और तथा कहा कि तुमने आज मेरी आंखे खोल दी हैं। इस भजन को सुनकर ही स्वामीजी सन्यासोन्मुखी हुए और जीवन पर्यन्त सद्भाव से जुड़े रहने का व्रत धारण किया।
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जब डॉयसन ने माना विवेकानंद का लोहा- 

एक बार जर्मनी के संस्कृत विद्वान पॉल डॉयसन और स्वामी विवेकानंद किसी विषय पर बात कर रहे थे। इसी बीच में डॉयसन को जरूरी काम से उठ कर बाहर जाना पड़ा। उनके जाने के बाद स्वामी जी अकेले कमरे में इधर-उधर देखते रहे। अचानक उनकी नजर एक किताब पर पड़ी और वो उसे पढ़ने लगे। जब उनकी नजर पुस्तक से हटी तो डॉयसन उनके सामने बैठे थे। विवेकानंद ने उनसे कहा क्षमा कीजिए मुझे अंदाजा नहीं हो पाया कि आप आ चुके हैं। दरअसल मैं यह किताब पढ़ने में तल्लीन हो गया था। इसके बाद फिर से दोनों पुराने मुद्दे पर चर्चा करने लगे। इसी दौरान विवेकानंद ने हाल ही में पढ़ी किताब की लाइनों का जिक्र किया। इस पर डॉयसन ने कहा कि आपने इस किताब को कई दफे पढ़ा होगा। इसके जवाब में विवेकानंद ने कहा कि नहीं उन्होंने इस किताब को पहले कभी नहीं पढ़ा है बल्कि अभी पढ़ा है। इस पर डॉयसन को विश्वास नहीं हुआ उन्होंने कहा कि इतने कम समय में कोई पूरी किताब कैसे पढ़ सकता है। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि अगर आप अपने चित्त को एकाग्र रखकर कुछ करते हैं तो कुछ भी संभव है।
 बदला विवेकानंद का नजरिया- 

अमेरिका प्रवास के दौरान विवेकानंद के सोचने का नजरिया बदल गया। विवेकानंद ने बताया कि भारत में धर्म चूल्हों और चौकों तक ही सीमित है और जात धर्म से ऊपर नहीं उठ पाया है। 

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अरविंदों घोष से जुड़ा जीवन संयोग- 

अरविंदो घोष के भाई बरींद्र घोष (बरींद्रनाथ घोष) या बरीन घोष और नरेंद्र नाथ दत्त (विवेकानंद) के भाई भूपेंद्र नाथ दत्त क्रांतिकारी थे।
बरीन घोष और भूपेंद्र नाथ दत्त दोनों ही पत्रकार थे। बरीन घोष बंगाल के क्रांतिकारी पत्रिका जुगांतर के संस्थापक सदस्यों में से एक थे और भूपेंद्र नाथ दत्त भी जुगांतर पत्रिका से जुड़े रहे sabhar :http://www.bhaskar.com/





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