रूपकुंड का भयावह रहस्य

रूपकुंड का भयावह रहस्य

पिछले सत्तर से भी अधिक बरसों से वैज्ञानिक हिमालय पर्वतमाला में पांच हज़ार मीटर की ऊंचाई पर छिपी हिमानी झील रूपकुंड का रहस्य बूझने की कोशिश कर रहे हैं| वर्तमान उत्तराखंड राज्य में स्थित इस स्थान पर 1942 में लगभग पांच सौ नर-कंकाल मिले थे जिनकी आयु 1100 साल आंकी गई थी|

अभी तक इन लोगों की मृत्यु का सही कारण तय नहीं किया जा सका है| हाल ही में लंदन के क्वीन मेरी विश्वविद्यालय और पूना विश्विद्यालय के वैज्ञानिकों ने मिलकर यहाँ जो शोधकार्य किया है उसके नतीजे जानकर तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं| वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इन लोगों की मृत्यु एक बिलकुल सरल रासायनिक अस्त्र से हुई!
यहाँ मिले अवशेषों का विश्लेष्ण करके वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सभी लोग एक साथ पलांश में ही मारे गए| यही नहीं सबके कपाल के पिछले भाग में दरारे हैं, कइयों के तो कपाल टूटे भी हुए हैं| इसकी व्याख्या करने के लिए वैज्ञानिकों ने विभिन्न प्राक्कल्पनाएं की हैं – आनुष्ठानिक नर-बलि से लेकर असाधारण ओला-वृष्टि तक| किंतु इनमें कोई भी कल्पना विश्वासप्रद नहीं प्रतीत होती| भारत में कभी भी नर-बलि का, सो भी सामूहिक नर-बलि का प्रचलन नहीं रहा है| अगर यह माना जाए कि पथिकों का दल असाधारण ओला-वृष्टि का शिकार हुआ तो ऐसा होने पर उनके शरीर के दूसरे हिस्सों पर लगी चोटों के निशान भी बचने चाहिए थे|
अब इन अवशेषों के रासायनिक विश्लेषण से पता चला है कि सभी कंकालों में नाइट्रोजन की मात्रा अस्वाभाविकतः अधिक है| वैज्ञानिक जानते हैं कि मानव-शरीर में नाइट्रोजन की मात्रा तेज़ी से बढ़ जाने पर रक्त खौलने लगता है| सो, एक और प्राक्कल्पना प्रस्तुत की गई है: इन लोगों पर किसी तरह का बाहरी प्रभाव नहीं पड़ा था| पलक झपकते ही रक्त में बढ़ गई नाइट्रोजन की मात्रा ने इन अभागों के कपाल अन्दर से फोड़ दिए| यदि ऐसा है तो हमें यह मानना पडेगा कि एक हज़ार साल से भी पहले कई सौ लोग सुदूर झील के तट पर रासायनिक हमले के शिकार हुए थे|
जिस स्थान पर नाइट्रोजन की अत्यधिक मात्रा वाले ये अवशेष मिले हैं वह हिमालय पर्वतमाला में पांच हज़ार मीटर की ऊंचाई पर स्थित है| वहां से निकटतम बस्ती सौ किलोमीटर से भी अधिक की दूरी पर है| इस हिमानी झील तक पहुंचना आज भी दुर्गम है, 1100 साल पहले तो यह बिलकुल ही बियाबान स्थान रहा होगा| तो यहाँ बड़ी संख्या में नर-कंकाल कहाँ से आए?
रासायनिक हमले की प्राक्कल्पना के समर्थक इस बात की ओर ध्यान दिलाते हैं कि यह स्थान सारे संसार से बिलकुल अलग-थलग है| उनके मत में इस झील के तट प्राचीन युग में एक प्रकार की परीक्षण-स्थली हो सकते थे जहां नए अस्त्रों के परीक्षण किए जाते थे|
यदि हम यह मानते हैं कि यहाँ मारे गए लोग रासायनिक अस्त्र के शिकार हुए थे तो यह भी मानना पड़ेगा कि नौंवी सदी ईसवी में भारत में रहनेवाले लोगों के पास तत्संबंधी प्रौद्योगिकी और कौशल थे| इतिहासकारों का कहना है कि भारत में उन दिनों भौतिकी और रसायन शास्त्र काफी विकसित थे| ज्ञात है कि इसी सदी में हुए शंकराचार्य का दूसरे विद्वानों से परमाणु की प्रकृति पर शास्त्रार्थ होता रहा था, जबकि परमाणुवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन तो तीसरी सदी ईसवी पूर्व में ही महात्मा बुद्ध के वरिष्ठ समसामयिक कात्यायन ने कर दिया था|
अपने व्यापक ज्ञान के आधार पर प्राचीन विद्वान कुछ रासायनिक तत्वों का संश्लेषण भी करने में सक्षम रहे होंगे| ऐसा वैज्ञानिक कार्य के लिए भी किया जा सकता था और सामरिक लक्ष्यों के लिए भी| रूपकुंड पर रासायनिक हमले के समर्थकों का कहना है कि 1100 साल पहले एक भयानक त्रासदी हुई थी| उनका अनुमान है कि उस युग के लिए असाधारण शक्तिशाली रासायनिक अस्त्र की खोज कर लेने पर प्राचीन विद्वान स्वयं ही इस खोज पर भयभीत हो गए थे| और तब उन्होंने अपनी इस खोज के सभी साक्ष्य नष्ट कर देने का निर्णय किया और सभी प्रत्यक्षदर्शियों को भी|
सभी शोधकर्ता इस प्राक्कल्पना को विश्वासजनक नहीं मानते| किंतु यह भी स्वीकार करना होगा कि इस सिद्धांत के आधार पर पांच सौ लोगों की रहस्यमय मृत्यु की कोई तो व्याख्या हो सकती है, दूसरी कोई भी प्राक्कल्पना कोई उत्तर नहीं पेश करती...
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