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हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम क्यों गिराए गए थे?

हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम क्यों गिराए गए थे?

जापान अपने अंतर्राष्ट्रीय सहयोगियों के साथ मिलकर दुनिया भर में परमाणु हथियारों के उन्मूलन के लिए संघर्ष करेगा। यह बात जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने 6 अगस्त को हिरोशिमा पर अमरीकी परमाणु बमबारी की 68-वीं बरसी पर आयोजित एक स्मृति समारोह में बोलते हुए कही।

यह लक्ष्य तो बहुत ही अच्छा है, लेकिन इसे हासिल करने की संभावना लगभग नहीं के बराबर है। इसका कारण यह है कि परमाणु हथियारों के मामले में भी राजनीति की जा रही है। अगर ऐसी स्थिति से निपटना है तो सबसे पहले मानवजाति को इस सवाल का जवाब बड़ी ही ईमानदारी से देना होगा कि हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराने की ज़रूरत क्या थी। इस संबंध में मास्को स्थित अंतर्राष्ट्रीय संबंध संस्थान के एक वरिष्ठ शोधकर्ता आन्द्रेय इवानोव ने कहा-
यह बात तो निर्विवाद है कि अमरीकियों द्वारा हिरोशिमा और नागासाकी पर की गई परमाणु बमबारी जापानी जनता के लिए एक भयानक त्रासदी थी। उस परमाणु बमबारी के कारण आज भी कई लोग बीमार होते हैं और मर जाते हैं। आज भी इस सवाल पर बहस जारी है कि जापान पर की गई परमाणु बमबारी कहाँ तक जायज़ थी। अमरीका में आज भी इसी बात का प्रचार किया जाता है कि हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराने के बाद ही जापान आत्मसमर्पण करने पर मज़बूर हुआ था और इसकी बदौलत ही लाखों अमरीकी, ब्रिटिश, सोवियत, चीनीऔर जापानी सैनिकों की जानें बच गई थीं। जहाँ तक कि सन् 2007 में जापान के रक्षामंत्री फ़ुमियो कियुमा ने तो यह भी कह दिया था कि हिरोशिमा और नागासाकी पर की गई परमाणु बमबारी त्रासदिक तो थी लेकिन इसके बिना कोई दूसरा विकल्प भी तो मौजूद नहीं था। इस प्रकार, पश्चिम में आज भी हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बमबारी की आवश्यकता का विचार प्रमुख धारणा बना हुआ है और वहाँ इस बमबारी को न्यायोचित ठहराया जाता है।
आन्द्रेय इवानोव ने याद दिलाया है कि उस समय ख़ुद ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि अमरीका की परमाणु बमबारी से नहीं, बल्कि जापान के विरुद्ध युद्ध में सोवियत संघ के शामिल होने के बाद ही जापान आत्मसमर्पण करने पर मज़बूर हुआ था। रूस में तो इस बात को बच्चा-बच्चा जानता है लेकिन पश्चिम में इसे भुला दिया गया है। इसलिए कई पश्चिमी पाठक एक ब्रिटिश इतिहासकार, वार्ड विल्सन के लेख "स्टालिन ने वह काम चार दिनों में कर दिखाया जो अमरीका चार साल में भी नहीं कर पाया था" को पढ़कर बहुत हैरान हुए हैं। वार्ड विल्सन ही "परमाणु हथियारों के बारे में पाँच भ्रम" शीर्षक से एक पुस्तक लिखी थी। लेखक ने इस अवधारणा को ग़लत सिद्ध किया है कि परमाणु बमबारी के कारण ही प्रशांत महासागर में युद्ध का अंत हुआ था। परमाणु बमबारी से पहले भी "उड़ते किले" नामक अमरीकी विमानों ने बमबारी करके दर्जनों जापानी शहरों का नामो-निशान मिटा दिया था। इन हमलों में लाखों लोग मारे गए थे। लेकिन उस समय की जापानी आलाकमान का कहना था कि ऐसे हमलों की बदौलत पूरा राष्ट्र एकजुट हो रहा है और दुश्मन का मुकाबला कर रहा है। इसलिए जब 6 अगस्त 1945 को हिरोशिमा पर परमाणू बम गिराया गया था तो जापानी नेताओं को बहुत परेशानी नहीं हुई थी। 9 अगस्त को नागासाकी पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद भी जापानी नेताओं के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया था। उनके रवैये में बदलाव तब ही आया था जब उसी दिन जापान के प्रधानमंत्री कन्तारो सुज़ुकी ने एक आपात बैठक में कहा था कि "आज सुबह सोवियत संघ के द्वारा युद्ध में शामिल हो जाने से हम एक कठिन स्थिति में फंस गए हैं और अब इस युद्ध को जारी रखना असंभव है"।
वास्तव में, जब सोवियत सैनिक मंचूरिया में बड़ी तेज़ी से आगे बढ़े थे तो तब ही जापान के सम्राट हिरोहितो 14 अगस्त को आत्मसमर्पण संबंधी एक अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने पर मज़बूर हुए थे। केवल सोवियत सेना के निर्णायक हमले के कारण ही मंचूरिया और कोरिया में जापानी सशस्त्र बलों को पराजय का मुँह देखना पड़ा था और 19 अगस्त 1945 को जापान ने बिना किसी शर्त के आत्मसमर्पण कर दिया था। वास्तव में, हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बमबारी ने नहीं, जिसने कि हज़ारों निर्दोष जापानी नागरिकों की जानें ले ली थीं, बल्कि सोवियत सेना की इस कार्रवाई ने ही युद्ध का अंत किया था। इस परमाणु दुःस्वप्न के बिना भी युद्ध का अंत ऐसा ही होना था। लेकिन अमरीका इस "परमाणु डण्डे" से सोवियत संघ पर दबाव डालना चाहता था।
लगातार परमाणु सर्वनाश के ख़तरे के डर के माहौल में जीना बहुत ही असहज होता है। लेकिन हिरोशिमा और नागासाकी की त्रासदी को भूल जाने से ही दुनिया को परमाणु हथियारों से मुक्त नहीं कराया जा सकता है। इस सिलसिले में आन्द्रेय इवानोव ने कहा-
दुर्भाग्य से, हम देख रहे हैं कि आज कई देशों के लिए परमाणु हथियार ही उनके अस्तित्व की एक विश्वसनीय गारंटी हैं। उदाहरण के लिए, इज़राइल ऐसा ही समझता है। लेकिन, इज़राइल के परमाणु हथियारों की मौजूदगी पर अमरीका को कोई आपत्ति नहीं है पर प्योंगयांग के संबंध में उसका रवैया इसके बिलकुल उलट है। उत्तरी कोरिया के लिए भी मिसाइलें और परमाणु हथियार उसकी सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं। वाशिंगटन एक के बाद एक संप्रभु देशों में सत्ता परिवर्तन करवा रहा है, लेकिन प्योंगयांग को इस बात की कोई गारंटी देने के लिए तैयार नहीं है कि वहाँ भी ऐसा नहीं किया जाएगा। ईरान की स्थिति भी ऐसी ही है।
इससे यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अगर कई देशों को बाहरी हमलों के विरुद्ध कोई अन्य विश्वसनीय गारंटी नहीं दी जाएगी तो वे परमाणु हथियार प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहेंगे और ऐसी स्थिति में दुनिया को परमाणु हथियारों से मुक्त कराने का सपना कभी साकार नहीं हो सकता है। sabhar : http://hindi.ruvr.ru
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