नीतीश कुमार का आरक्षण वाला दांव कितना टिकेगा? सुप्रीम कोर्ट के फैसले से समझिए
नीतीश कुमार का आरक्षण वाला दांव कितना टिकेगा? सुप्रीम कोर्ट के फैसले से समझिए
लोकसभा चुनाव 2024 से पहले आरक्षण का मुद्दा गरम होता जा रहा है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे लेकर बड़ा दांव चला है। उन्होंने ओबीसी, एससी और एसटी के लिए कोटा बढ़ाने का प्रस्ताव किया है। उन्होंने सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थानों में इसे बढ़ाकर 65 फीसदी करने को कहा है।
नई दिल्ली: बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ओबीसी, एससी और एसटी के लिए आरक्षण बढ़ाने की जरूरत बताई है। उन्होंने सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण बढ़ाकर 65 फीसदी करने का प्रस्ताव दिया है। इसमें आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए केंद्र के 10 फीसदी आरक्षण को शामिल नहीं किया गया है। इस तरह कुल रिजर्वेशन 75 फीसदी हो जाएगा। जातीय जनगणना को लेकर जारी शोर-शराबे के बीच नीतीश कुमार ने यह ऐलान किया है। लोकसभा चुनाव से पहले इसे नीतीश की ओर से चले गए राजनीतिक दांव के तौर पर भी देखा जा रहा है। हालांकि, नीतीश कुमार के प्रस्ताव में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का बड़ा अड़ंगा है। सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में इस बारे में फैसला दिया था। यह फैसला राज्य कोटे को 50 फीसदी की सीमा पर रोकने की बात करता है। नीतीश जो ऐलान कर रहे हैं वह रिजर्वेशन को निर्धारित 50 फीसदी की सीमा से आगे ले जाएगा।
बिहार कास्ट सर्वे के अनुसार, राज्य के 13.1 करोड़ लोगों में से 36 फीसदी ईबीसी से हैं। इनमें 27.1 फीसदी पिछड़े वर्ग से हैं और 19.7 फीसदी अनुसूचित जाति से। एससी 1.7 फीसदी हैं। वहीं, सामान्य वर्ग 15.5 फीसदी। इसका मतलब यह है कि बिहार के 60 फीसदी से ज्यादा लोग पिछड़े या अति पिछड़े वर्ग से आते हैं। वर्तमान ईबीसी के लिए 18 फीसदी और पिछड़े वर्गों के लिए 12 फीसदी आरक्षण है। वहीं, अनुसूचित जाति के लिए यह 16 फीसदी और अनुसूचित जनजाति के लिए एक फीसदी है। नीतीश ने जो प्रस्ताव किया है, उसमें संशोधित कोटा के तहत एससी कैंडिडेट को 20 फीसदी जबकि ओबीसी और ईबीसी को 43 फीसदी कोटा मिलने की बात कही गई है। यह पहले के मुकाबले कोटे में 30 फीसदी की बढ़ोतरी है। एसटी के लिए दो फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव किया गया है।
50 फीसदी सीलिंंग खत्म करने की मांग ने पकड़ा जोर
बिहार में जातिगत सर्वे के बाद से ही आरक्षण की 50 फीसदी की सीलिंग को खत्म करने की मांग ने जोर पकड़ा है। देश में रिजर्वेशन का मुद्दा बेहद संवेदनशील रहा है। इसका असर अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव पर भी देखने को मिल सकता है। ज्यादातर जानकार नीतीश के इस कदम को राजनीतिक चश्मे से ही देख रहे हैं। विपक्ष के I.N.D.I.A गठबंधन को बनाने और खड़ा करने में वह शुरू से काफी सक्रिय रहे हैं।
हालांकि, नीतीश के दांव को सुप्रीम कोर्ट के 1992 के फैसले के सामने टिकना होगा। देश की सबसे बड़ी अदालत ने तब इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में आरक्षण को लेकर बड़ा फैसला सुनाया था। अपने फैसले में कोर्ट ने आरक्षण को लेकर 50 फीसदी की सीमा तय की थी। इसमें तमिलनाडु इकलौता अपवाद है। उसे छोड़कर सभी राज्यों में इसका पालन करना होता है। कई राज्यों में अलग-अलग समुदायों को रिजर्वेशन देने की नीति के तहत इस सीलिंग को समाप्त करने की मांग उठती रही है। इनमें महाराष्ट्र और झारखंड शामिल हैं। यहां तक महाराष्ट्र और कर्नाटक में तो रिजर्वेशन के प्रस्ताव भी पारित कर दिए गए। हालांकि, कोर्ट ने उन प्रस्तावों पर अमल करने से रोक लगा दी। इस मामले में 10 फीसदी ईडब्लूएस (आर्थिक रूप से कमजोर) कोटा अपवाद रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने 27% ओबीसी आरक्षण को रखा था कामय
1992 में 9 जजों की संवैधानिक पीठ ने 6-3 के बहुमत से फैसला सुनाया था। उसने 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण को कामय रखा था। सिर्फ अपवादों को छोड़ उसने आरक्षण की 50 फीसदी सीमा तय करने का फैसला सुनाया था। बाद में 1994 में 76वां संशोधन हुआ था। इसके तहत तमिलनाडु में रिजर्वेशन की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा कर दी गई थी। यह संशोधन संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल किया गया है।
पिछले कुछ सालों में बीजेपी की सफलता की एक बड़ी वजह तमाम जातियों का उसके साथ जुड़ना रहा है। उसका फोकस जाति के बजाय हिंदुओं को एक करने पर पर रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर बीजेपी के बड़े दिग्गज नेता तक जातिवाद और क्षेत्रवाद पर निशाना साधते रहे हैं। हाल में पीएम ने जातिवाद और क्षेत्रवाद को समाज की बड़ी बुराई बताया था। उन्होंने इनके सहारे देश को विभाजित करने वाली ताकतों को उखाड़ फेंकने की अपील की थी।sabhar:navbharattimes.indiatimes.com
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