सभी धर्मों का मूल उद्देश्य : आत्मसाक्षात्कार‼️

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विश्व में अनेक धर्म-संप्रदाय प्रचलित हैं। इनमें से हिंदू, सिख, ईसाई, जैन, मुसलिम, बौद्ध, यहूदी, ताओ, कन्फ्यूशियन, शिंतो आदि विभिन्न नामों से प्रचलित धर्म-संप्रदाओं का गहनतापूर्वक अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि उनके बाह्य स्वरूप एवं क्रिया-कृत्यों में जमीन-आसमान जितना अंतर है। क्रिया कृत्यों में यह अंतर होना उचित भी है क्योंकि जिस वातावरण व जिन परिस्थितियों में वे पनपे और फैले हैं, उनकी छाप उन पर पड़ना स्वाभाविक है। मूर्द्धन्य मनीषियों, अवतारी महामानवों ने देश-काल-परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए श्रेष्ठता संवर्द्धन एवं निकृष्टता निवारण के लिए जो सिद्धांत एवं आचारशास्त्र विनिर्मित किए, कालांतर में वे ही धर्म संप्रदाओं के नाम से जाने-पहचाने लगे।


जहाँ तक मौलिक सिद्धांतों की बात है, वे सभी धर्मों में एक ही हैं। सभी ने एक सार्वभौम चेतनसत्ता के साथ तादात्म्य स्थापित करना मानव का अंतिम लक्ष्य स्वीकार किया है। मनुष्य का गुण, कर्म, स्वभाव एवं चिंतन, चरित्र, व्यवहार, पवित्रता, प्रखरता एवं उत्कृष्टता से ओत-प्रोत हो जाए, अनुप्राणित हो जाए, सभी धर्मो का यही चरम लक्ष्य है। आदिकाल से ही धर्म इस बात के लिए सचेष्ट रहा है कि मनुष्य के भीतर सत्प्रेरणाएँ उभरें और वह दिव्य जीवन जीने की ओर अग्रसर हो तथा आत्मिक विकास की अपनी चरम सीमा पर पहुँचकर वह उन अलौकिक अनुभूतियों का रसास्वादन कर सके, जिसे ईश्वरानुभूति के रूप में निरूपित किया गया है।


धर्म की महान गरिमा एवं उपादेयता को स्पष्ट करते हुए महाभारत, स्वर्गारोहण पर्व (5/62) में कहा गया है- धर्मात् अर्थश्च कामश्च, स किमर्थं न सेव्यते। अर्थात " धर्म से संपत्ति तथा कामनाओं की प्राप्ति होती है, फिर उसकी अभ्यर्थना क्यों नहीं की जाती!" वस्तुतः जिन्होंने धर्म के सही स्वरूप एवं लक्ष्य को समझा, उनने एक मत से कहा कि धर्म मानवीय विकास के लिए एक अनिवार्य तत्त्व है। धर्मतत्त्व का गहराई से अध्ययन करने वाले मूर्द्धन्य विचारक बर्नार्ड शॉ को एक बार तो कहना ही पड़ा था-"यदि हम वास्तव में कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य करना चाहते हैं तो हमारा कोई धर्म होना चाहिए। यदि हमारी सभ्यता को वर्तमान भयंकर स्थिति से निकालने के लिए कुछ किया जाना है, तो यह ऐसे व्यक्तियों द्वारा किया जाना है, जिनका कोई धर्म है। जिन लोगों का कोई धर्म नहीं होता, वे कायर एवं असभ्य होते हैं।" सुविख्यात दार्शनिक कांट का भी कहना है-"हम धर्म से दूर नहीं जा सकते; क्योंकि उसके बिना जीवन में समग्रता एवं परिपूर्णता नहीं आ सकती। यदि धर्म अपने विकसित रूप में जीवन में अभिव्यक्त होने लगे तो मनुष्य अमरता को प्राप्त कर सकता है और यह वैयक्तिक तथा सामाजिक प्रगति का सूत्रधार बन सकता है।"


विश्व में प्रचलित सभी धर्म एक ही सार्वभौम सत्य का उद्घाटन करते हैं कि मनुष्य को सर्वव्यापी एवं सर्वसमर्थ न्यायकारी ईश्वरीय चेतना से जुड़ना और लोक- मंगल के लिए समर्पित भाव से जीवनयापन करना चाहिए। विविध धर्मों के बाह्य कलेवर जो भी हों, किंतु उन सबका उद्देश्य एक ही है-अपने उद्गमस्थल तक पहुँचना, आत्मसाक्षात्कार करना अर्थात ईश्वरमिलन । भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में स्पष्ट कहा है- 'सभी मनुष्य भिन्न-भिन्न पथों से चलकर अंततः मुझ तक ही पहुँचते हैं।" प्रसिद्ध संत जरदुश्त के अनुसार- "हम संसार के उन सभी धर्मों को मानते और पूजते हैं, जो नेकी सिखाते हैं।" चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस का कहना है-" अलग-अलग धर्मों की प्रेरणाएँ एकदूसरे की विरोधी नहीं, पूरक हैं।" सभी धर्मों में समाहित मौलिक एकता पर दृष्टि रखी जा सके तो संसार से समस्त विग्रहों का समापन सुनिश्चित है।🙏

---युग ऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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