उन्नति की आकाँक्षा

  उन्नति की आकाँक्षा करने से पहले मनुष्य को अपने को परखकर देख लेना चाहिए कि ऊँचे चढ़ने के लिए जिस श्रम की आवश्यकता होती है, उसकी जीवन वृत्ति उसमें है भी या नहीं। यदि है तो उसकी आकाँक्षा अवश्य पूर्ण होगी अन्यथा इसी में कल्याण है कि मनुष्य उन्नति की आकाँक्षा का त्याग कर दे, नहीं तो उसकी आकाँक्षा स्वयं उसके लिए एक कंटक बन जायेगी।

□ हममें से अधिकांश लोग किसी कार्य की शुरुआत इसलिए नहीं करते, क्योंकि आने वाले खतरों को उठाने का साहस हममें नहीं होता। हम दूसरों की आलोचना, विरोध से डरते हैं। असफलता या लोकनिन्दा का भय हमें कार्य की शुरुआत में ही निस्तेज कर देता है, इसी कारणवश हम दीन-हीन जीवन व्यतीत करते हैं। संसार की जो जातियाँ साहस पर ही जीती हैं, वे ही सबकी अगुवा भी बन जाती हैं।

◆ किसी कार्य को केवल विचार पर ही नहीं छोड़ देना चाहिए। कार्य रूप में परिणत हुए बिना योजनाएँ चाहे कितनी ही अच्छी क्यों न हों, लाभ नहीं दे सकतीं।  विचार की आवश्यकता वैसी ही है जैसी रेलगाड़ी को स्टेशन पार करने के लिए सिग्नल की आवश्यकता होती है। सिग्नल का उद्देश्य केवल यह है कि ड्राइवर यह समझले कि रास्ता साफ है अथवा आगे कुछ खतरा है? विचारों द्वारा भी ऐसे ही संकेत मिलते हैं कि वह कार्य उचित और उपयुक्त है या अनुचित और अनुपयुक्त?

◇ मनुष्य के साध्य, सुख और शान्ति का निवास कामनाओं, उपादानों अथवा भोग-विलास में नहीं है। वह कम से कम कामनाओं, अधिक से अधिक त्याग और विषय-वासनाओं के विष से बचने में ही पाया जा सकता है। जो निःस्वार्थी, निष्काम, पुरुषार्थी, परोपकारी, संतोषी तथा परमार्थी हैं, सच्ची सुख-शान्ति के अधिकारी वही हैं। सांसारिक स्वार्थों एवं लिप्साओं के बंदी मनुष्य को सुख-शान्ति की कामना नहीं करनी चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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